दिन भर बीत जाए इस ऊहापोह में की ये क्यों नही मेरे संग 

रात भर गुजर जाए इस मोह में की मैं ही क्यों खुद के संग

मध्य का हर पहर गवाह इस राज का

के कैसे हर शाम रहती मेरे रंग ।

सवेरे की रोशनी मन मोह लेती 

बिखर के अपने ही ढंग।


फिर भी क्यों इन विचारों को 

एक शांत राह नही मिलती

वो गली जिसमे बस एक महकती

कली ही हो बस खिलती

फिजा उस महफिल की अपने आप ही संभलती

ज़ुबां की हर पहेली महज़ कहने भर से ही पिघलती।


बंधन अब कोई नही सब आजाद है

सवाल कुछ छाए है जो मेरी ही इजाद है

बस हाथ में है कलम और

उसके सिरे पर एक किताब है।

उस किताब का हर किस्सा पढ़ जाने को बेताब है

जो ठहर रूबरू हो जाए उसे 

वो उसकी नज़रों में मेहताब है।


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